ईश्वरीय अंश कैसे विकसित करें ?
पशुता हर जीव में होती है, मानवता मनुष्य में होती है और ईश्वरत्व जड़-चेतन सभी में होता है। मनुष्य एक ऐसी जगह पर खड़ा है कि उसके एक तरफ पशुता है तो दूसरी तरफ ईश्वरत्व है और मनुष्यता उसे लानी पड़ती है। खुद मनुष्य-शरीर में होते हुए भी उसमें मनुष्यता हो, यह जरूरी नहीं है।
मनुष्य दो पैर वाले प्राणी के रूप में जन्मता है और उसमें मनुष्यता आती है व्रतों से, नियमों से, साधन-भजन से। मनुष्यता आती है तभी सद्गुरुओं का ज्ञान हजम होता है। सदगुरु का ज्ञान पशु को हजम नहीं होता।
पशु कभी भी आपको लात मार सकती है क्योंकि वह पशु है।
एक बार मेरे ही बैल मुझे ही मार कर गिरा दिया था चोट भी लगी थी तो भी मैंने उसको लाठी नहीं मारी क्योंकि वह पशु था।
मनुष्य देह में पशुता भी छुपी है, मानवता भी छुपी है और देवत्व भी छुपा है तो करना क्या चाहिए ?
पशुता को क्षीण करना और मनुष्यता को निखारना चाहिए। फिर मनुष्यता को निखारते-निखारते ईश्वरत्व को निखारना चाहिए।
पशु और मनुष्य में यही फर्क है कि पशु जैसा मन में आया वैसा करते हैं। फिर भले ही उसे डंडे खाने पड़ें, जूते मारे जायें अथवा मरना ही क्यों न पड़े ! पतंगे दीपक में जलकर मर जाते हैं, मछली काँटे में फँसकर मर जाती है, भ्रमर कमल में फँसकर मर जाता है, हिरण सुर-ताल-लय में सुधबुध खोकर अपनी जान गँवा देता है, हाथी घास की हथिनी के पीछे फँस जाता है और सारी जिंदगी महावत की गुलामी करता है। ऐसे ही मनुष्य भी शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श के पीछे जीवन पूरा कर देते हैं तो उन्हें क्या करना चाहिए ?
मनुष्य को चाहिए की शास्त्र और धर्म के अनुसार अपनी मनुष्यता विकसित करते-करते ईश्वरत्व को विकसित करे। ऐसा नहीं कि भ्रम में फँस जाये कि ‘मैं ब्रह्म हूँ… मैं आत्मा हूँ…’ और मनमानी करने लग जाये तथा स्वयं पशुता में गिर जाय ! पशुता में गिर जायेगा तो ब्रह्म क्या रहेगा ? मनुष्यता से गिर जायेगा तो ईश्वरत्व में कैसे पहुँचेगा ?
मनुष्य-शरीर में संयम का पालन नहीं किया तो ईश्वरत्व को कैसे पायेगा ? संयम नियम का पालन करने से सच्चाई आती है, सच्चाई से सत्य को जानने की जिज्ञासा होती है जिससे श्रद्धा दृढ़ होती है, बुद्धि में सत्व आता है, जो सत्य स्वरूप ईश्वर में स्थिति कराता है। जो सच्चाई का आश्रय नहीं लेता है उसको सत्य की जिज्ञासा उत्पन्न नहीं होती है। कोई सत्य का उपदेश सुनकर कह दे कि ‘मैं ब्रह्म हूँ’ तो इससे काम नहीं चलता है।
*सत्य की तीव्र जिज्ञासा के बिना आदमी वफादारी से गुरु की शरण नहीं जाता है।* जब कभी मौका मिलेगा तब इंद्रियलोलुप व्यक्ति गद्दारी कर लेगा और जो अपने साथ गद्दारी करता है, वह गुरु के साथ भी गद्दारी कर सकता है।
अतः अपने जीवन में कड़क नियम रखो, सजगता रखो, कड़क निगरानी रखो। जैसे, आपके पास अगर हीरे-जवाहरात हैं तो आप उनकी ऐसी निगरानी रखते हैं कि कोई उन्हें चुरा न ले जाये। ऐसे ही हीरे-जवाहरातों से भी ज्यादा कीमती आपका जीवन है। अतः काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईर्ष्या, घृणा आदि विकार आपके कीमती जीवन को कहीं चुरा न लें इसकी पहरेदारी आप अवश्य रखें। अपने मन को विकारों में गिरने के लिए कभी भी ढील न दें।
मन को नियंत्रण में रखें तथा बुद्धि को परमात्मा में लगायें तभी ईश्वरत्व में स्थिति हो सकती है। ईश्वरत्व में स्थिति के लिए अपनी बुद्धि को जगत के नश्वर पदार्थों से हटाकर अमर आत्मा में लगाना चाहिए। आत्मा के विषय में ही बार-बार सुनें, उसी का मनन करें तथा खानपान और आचार-विचार में संयम रखें।
पुण्यपुंज होने से सत्संग की प्राप्ति होती है और सात्विक विवेक जगता है तभी परमात्मा को पाने की प्यास जगती है। जिसका आचरण ऊँचा है और पुण्य अधिक हैं उसे ही आत्मा- परमात्मा को जानने पाने की इच्छा होती है। दूसरों को तो सिर खपा-खपाकर उठाना पड़ता है। एक दो व्यक्ति नहीं, लाखों-लाखों व्यक्ति महापुरुषों के प्रयत्न से थोड़े ऊपर उठते हैं परन्तु जिनका स्वयं का प्रयत्न है, उनको महापुरुष मिलते हैं तो वे जल्दी ऊपर उठ जाते हैं। इसको आत्मविषयिणी बुद्धि बोलते हैं।
आत्मविषयिणी बुद्धि बनाना सबसे ऊँची बात है। ईश्वरीय अंश जगाना सबसे ऊँची बात है।
ईश्वरीय अंश जगता कैसे है पशुता कैसे मिटती है ?
मनुष्य की पशुता अपने-आप नहीं छूटती। जब वह अपने मन को सद्गुरु की आज्ञा में चलायेगा तब पशुता आसानी से छूटेगी। बच्चा बेवकूफी कब छोड़ता है ? जब शिक्षक के कहे अनुसार चलता है, तब उसकी बेवकूफी छूटती है और वह विद्वान बनता है। ऐसे ही शिष्य सद्गुरु की आज्ञा में चलता है, तब पशुता और मानवता को बाधित करके ईश्वरीय अंश जगा पाता है। इसीलिए कहा गया हैः
गुरुकृपा ही केवलं शिष्यस्य परम मंगलम्।
गुरु की कृपा क्या अपने-आप आती है कि कुछ करना पड़ता है ?
अपने-आप क्या आयेगा ? जो होता है वह करने से ही होता है। साधक को चाहिए कि वह गुरु की आज्ञा के अनुसार साधन-भजन, जप-ध्यान, सेवा-सुमिरन आदि करे। गुरु की आज्ञा के अनुसार अपने को ढाले, इससे उसकी पशुता मिटेगी और ईश्वरीय अंश विकसित होगा।
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