ज्ञान की बात

एक राजा था। वह पशु-पक्षी की भाषा जानता था।
एक बार राजा-रानी भोजन कर रहे थे, तो एक चींटी ने भोजन का एक दाना रानी की थाली में से उठाकर राजा की थाली में रख दिया। यह देखकर दूसरी चींटी ने कहा -यह अधर्म है। स्त्री का उच्छिष्ट अन्न पुरुष को खिलाना अविवेक है। इन दोनों की बातों को सुनकर राजा को हँसी आई। रानी ने हँसने का कारण पूछा।

राजा ने कहा- छोड़ो इस बात को। सुनोगी तो अनर्थ होगा। फिर भी रानी ने जानने की जिद की। जिस महात्मा ने राजा को यह विद्या दी थी, उसने कहा था कि मैंने यह विद्या सिखाई है, यदि किसी को इसकी बात करोगे या सिखाओगे तो तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी।

राजा ने पत्नी को बहुत समझाया पर पत्नी ने हठ नहीं छोड़ा। वह कहने लगी चाहे आपकी मृत्यु हो भी जाए, किन्तु मै बात जानना चाहती हूँ। राजा पत्नी के आधीन था। इसलिए मरने के लिए तैयार हो गया। राजा ने कहा -चलो हम दोनों काशी चले। मैं वही तुम्हें सारी बात बताऊँगा। राजा ने सोचा कि अगर मरना ही है तो काशी में मरकर मुक्ति पा लू। वे दोनों काशी की ओर जाने निकले। रास्ते में एक बकरा-बकरी का जोड़ा मिला। बकरी ने बकरे से कहा कि कुँए के पास जाकर मेरे लिए हरी घास ले आओ, नहीं मै डूब मरूंगी।
 
बकरे ने कहा कि मेरा पैर फिसल जायेगा तो कुँए में गिरकर मै मर जाऊँगा। बकरी ने कहा चाहे जो भी हो मुझे घास लाकर दो। तो बकरे ने तेवर बदलकर कहा कि- मै इस राजा जैसा मूर्ख नहीं हूँ, जो पत्नी के लिए बिना कारण जान दे दूं। राजा ने बकरे के ये शब्द सुने तो सोच में पड़ गया। मै कितना मूर्ख हूँ कि प्रभु-भजन के लिए जो शरीर मिला है, वह इस स्त्री की मूर्खताभरी हठ की खातिर उसका नाश करने के लिए तैयार हो गया। धिक्कार है मुझे। मुझसे तो बकरा ही अच्छा है। उसने रानी को दृढ़ता से कह दिया -मै तुम्हे कुछ भी बताना नहीं चाहता। तू जो चाहे वह कर सकती है। रानी को अपनी हठ छोड़नी पड़ी। 

गृहस्थाश्रम में आज्ञा दी गई है कि वह दान करे, क्योंकि दान से धन शुद्धि होती है। साल में एक मास गंगा किनारे रहकर नारायण की आराधना करनी चाहिए। भक्ति करने के लिए स्थान-शुद्धि आवश्यक है। स्थान के वातावरण का मन पर असर पड़ता है।  मार्कडेय पुराण में एक कथा है।
 
श्रीराम लक्ष्मण एक जंगल में से जा रहे थे। मार्ग में एक स्थान पर लक्ष्मण के मन में कुभाव आया और मति भ्रष्ट हो गई। वे सोचने लगे-कैकयी ने वनवास तो राम को दिया है, मुझे नहीं। मै राम की सेवा के लिए क्यों कष्ट उठाऊ? श्रीराम सब समझ गए-कि लक्ष्मण के मन में कुभाव आया है। राम ने लक्ष्मण से कहा -इस स्थल की मिटटी अच्छी दीखती है, थोड़ी साथ बांध ले।*

लक्ष्मण ने एक पोटली में बांध ली। जब तक उस पोटली को लेकर चलते थे तब तक मन में कुभाव भी रहा। जैसे वह पोटली को रखकर दूर जाते थे तब उनका  मन में राम-सीता के लिए ममता और भक्ति से भर जाता था। लक्ष्मण को  इस बात से आश्चर्य हुआ। उन्होंने इसका कारण राम से पूछा। राम ने कहा -तेरे मन की इस परिवर्तन का दोषी तू नहीं है। इस मिटटी का प्रभाव है। जिस भूमि पर जैसे काम किये जाते है, उसके अच्छे-बुरे परमाणु उस भूमिभाग में और वातावरण में रहते है।

शांति की खोज


'शांति की तलाश'
 
एक बार भगवान बुद्ध अपने शिष्यों के साथ कही जा रहे थे । उनके प्रिय शिष्य आनंद ने मार्ग में उनसे एक प्रश्न पूछा -‘भगवान! जीवन में पूर्ण रूप से कभी शांति नहीं मिलती, कोई ऐसा मार्ग बताइए कि जीवन में सदा शांति का अहसास हो ।
बुद्ध आनंद का प्रश्न सुनकर मुस्कुराते हुए बोले,’ तुम्हे इसका जबाब अवश्य देगे किन्तु अभी हमे प्यास लगी है, पहले थोडा जल पी ले । क्या हमारे लिए थोडा जल लेकर आओगे?

बुद्ध का आदेश पाकर आनंद जल की खोज में निकला तो थोड़ी ही दूरी पर एक झरना नजर आया । वह जैसे ही करीब पंहुचा तब तक कुछ *बैलगाड़िया* वहां आ पहुची और झरने को पार करने लगी । उनके गुजरने के बाद आनंद ने पाया कि झील का पानी बहुत ही गन्दा हो गया था इसलिए उसने कही और से जल लेने का निश्चय किया । बहुत देर तक जब अन्य स्थानों पर जल तलाशने पर जल नहीं मिला तो निराश होकर उसने लौटने का निश्चय किया ।

उसके खाली हाथ लौटने पर जब बुद्ध ने पूछा तो उसने सारी बाते बताई और यह भी बोला कि एक बार फिर से मैं किसी दूसरी झील की तलाश करता हूँ जिसका पानी साफ़ हो । यह कहकर आनंद जाने लगा तभी भगवान बुद्ध की आवाज सुनकर वह रुक गया । बुद्ध बोले-‘दूसरी झील तलाश करने की जरुरत नहीं, उसी झील पर जाओ’ ।

आनन्द दोबारा उस झील पर गया किन्तु अभी भी झील का पानी साफ़ नहीं हुआ था । कुछ पत्ते आदि उस पर तैर रहे थे । आनंद दोबारा वापिस आकर बोला इस झील का पानी अभी भी गन्दा है । बुद्ध ने कुछ देर बाद उसे वहाँ जाने को कहा । थोड़ी देर ठहर कर आनंद जब झील पर पहुंचा तो अब झील का पानी बिलकुल पहले जैसा ही साफ़ हो चुका था । काई सिमटकर दूर जा चुकी थी, सड़े- गले पदार्थ नीचे बैठ गए थे और पानी आईने की तरह चमक रहा था ।

इस बार आनंद प्रसन्न होकर जल ले आया जिसे बुद्ध पीकर बोले कि ‘आनंद जो क्रियाकलाप अभी तुमने किया, तुम्हारा जबाब इसी में छुपा हुआ है । बुद्ध बोले -‘ हमारे जीवन के जल को भी विचारों की बैलगाड़ियां रोज गन्दा करती रहती है और हमारी शांति को भंग करती हैं । कई बार तो हम इनसे डर कर जीवन से ही भाग खड़े होते है, किन्तु हम भागे नहीं और मन की झील के शांत होने कि थोड़ी प्रतीक्षा कर लें तो सब कुछ स्वच्छ और शांत हो जाता है । ठीक उसी झरने की तरह जहाँ से तुम ये जल लाये हो । यदि हम ऐसा करने में सफल हो गए तो जीवन में सदा 
शान्ति के अहसास को पा लेगे’।

ब्रज की 84 कोस की परिक्रमा

बृज परिक्रमा

जानिए क्या है 84 कोसी यात्रा और हर व्यक्ति को क्यों करनी चाहिए यह यात्रा?
वेद-पुराणों में ब्रज की 84 कोस की परिक्रमा का बहुत महत्व है, ब्रज भूमि भगवान श्रीकृष्ण एवं उनकी शक्ति राधा रानी की लीला भूमि है। इस परिक्रमा के बारे में वारह पुराण में बताया गया है कि पृथ्वी पर लाखों तीर्थ हैं और वे सभी चातुर्मास में ब्रज में आकर निवास करते हैं। करीब 268 किलोमीटर परिक्रमा मार्ग में परिक्रमार्थियों के विश्राम के लिए 25 पड़ावस्थल हैं। इस पूरी परिक्रमा में करीब 1300 के आसपास गांव पड़ते हैं। कृष्ण की लीलाओं से जुड़ी 1100 सरोवर, 36 वन-उपवन, पहाड़-पर्वत पड़ते हैं। बालकृष्ण की लीलाओं के साक्षी उन स्थल और देवालयों के दर्शन भी परिक्रमार्थी करते हैं, जिनके दर्शन शायद पहले ही कभी किए हों। परिक्रमा के दौरान श्रद्धालुओं को यमुना नदी को भी पार करना होता है। मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने मैया यशोदा और नंदबाबा के दर्शनों के लिए सभी तीर्थों को ब्रज में ही बुला लिया था। 84 कोस की परिक्रमा लगाने से 84 लाख योनियों से छुटकारा पाने के लिए है। परिक्रमा लगाने से एक-एक कदम पर जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं। शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि इस परिक्रमा के करने वालों को एक-एक कदम पर अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। साथ ही जो व्यक्ति इस परिक्रमा को लगाता है, उस व्यक्ति को निश्चित ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। सभी तीर्थों को ब्रज में बुलाया गया था यह गर्ग संहिता में कहा गया है। यशोदा मैया और नंद बाबा ने भगवान श्री कृष्ण से 4 धाम की यात्रा की इच्छा जाहिर की तो भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि आप बुजुर्ग हो गए हैं, इसलिए मैं आप के लिए यहीं सभी तीर्थों और चारों धामों को आह्वान कर बुला देता हूं। उसी समय से केदरनाथ और बद्रीनाथ भी यहां मौजूद हो गए। 84 कोस के अंदर राजस्थान की सीमा पर मौजूद पहाड़ पर केदारनाथ का मंदिर है। इसके अलावा गुप्त काशी, यमुनोत्री और गंगोत्री के भी दर्शन यहां श्रद्धालुओं को होते हैं। तत्पश्चात यशोदा मैया व नन्दबाबा ने उनकी परिक्रमा की। तभी से ब्रज में चौरासी कोस की परिक्रमा की शुरुआत मानी जाती है।
।। सनातन सेवा समिति।।

ज्ञान वाणी

एक निर्धन व्यक्ति था। वह नित्य भगवान विष्णुजी और लक्ष्मीजी की पूजा करता था। एक बार जब दीपावली के दिन उसने भगवती लक्ष्मी की श्रद्धाभक्ति से पूजा अर्चना की, तो उसकी आराधना से लक्ष्मी प्रसन्न होकर उसके सामने प्रकट हुईं और उसे एक अंगूठी भेंट देकर अदृश्य हो गईं।

अंगूठी सामान्य नहीं थी। उसे पहनकर जैसे ही अगले दिन उसने धन पाने की कामना की तो उसके सामने धन का ढेर लग गया। वह ख़ुशी के मारे झूम उठा। इसी बीच उसे भूख लगी, तो मन में अच्छे पकवान खाने की इच्छा हुई। कुछ ही पल में उसके सामने पकवान आ गए।

अंगूठी का चमत्कार मालूम पड़ते ही उसने अपने लिए आलीशान बंगला, नौकर-चाकर आदि तमाम सुविधाएं प्राप्त कर लीं। वह भगवती लक्ष्मी की कृपा से प्राप्त उस अंगूठी के कारण अब सुख से रहने लगा।अब उसे किसी प्रकार का कोई दु:ख, कष्ट या चिंता नहीं थी। नगर में उसका बहुत नाम हो गया।

एक दिन उस नगर में जोरदार तूफ़ान के साथ बारिश होने लगी। कई निर्धन लोगों के मकानों के छप्पर उड़ गए। लोग इधर-उधर भागने लगे। तभी एक बुढ़िया उसके बंगले में आई। उसे देख वह व्यक्ति गरज कर बोला- 'ऐ बुढ़िया कहां चली आ रही है बिना पूछे।'

बुढ़िया ने कहा, 'कुछ देर के लिए तुम्हारे यहां रहना चाहती हूं।' लेकिन उसने उसे बुरी तरह डांट-डपट दिया।
उस बुढ़िया ने कहा, 'मेरा कोई आसरा नहीं है। इतनी तेज बारिश में मैं कहां जाऊंगी? थोड़ी देर की ही तो बात है।'
लेकिन उसकी किसी भी बात का असर उस व्यक्ति पर नहीं पड़ा।जैसे ही सेवकों ने उसे द्वार से बाहर किया, वैसे ही जोरदार बिजली कौंधी।

देखते ही देखते उस व्यक्ति का मकान जलकर खाक़ हो गया। उसके हाथों की अंगूठी भी गायब हो गई। सारा वैभव पल भर में राख के ढेर में बदल गया। उसने आंख खोल कर जब देखा, तो सामने लक्ष्मीजी खड़ी थीं। जो बुढ़िया कुछ देर पहले उसके सामने दीन-हीन होकर गिड़गिड़ा रही थीं, वही अब लक्ष्मीजी के रूप में उसके सामने मंद-मंद मुस्कुरा रही थीं। वह समझ गया उसने बुढ़िया को नहीं, साक्षात लक्ष्मीजी को घर से निकाल दिया था। वह भगवती के चरणों में गिर पड़ा। देवी बोलीं, 'तुम इस योग्य नहीं हो। जहां निर्धनों का सम्मान नहीं होता, मैं वहां निवास नहीं कर सकती।' यह कहकर लक्ष्मीजी उसकी आंखों से ओझल हो गईं।

संदेश -जहां निर्धनों का सम्मान होता है , वहां मां लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है ।
।। सनातन सेवा समिति।।
जय लक्ष्मी मां  ।। 

हनुमान जी का कर्जा

रामजी लंका पर विजय प्राप्त करके आए तो, भगवान ने विभीषण जी, जामवंत जी, अंगद जी, सुग्रीव जी सब को अयोध्या से विदा किया। 

तो सब ने सोचा हनुमान जी को प्रभु बाद में बिदा करेंगे, लेकिन रामजी ने हनुमानजी को विदा ही नहीं किया,

अब प्रजा बात बनाने लगी कि क्या बात सब गए हनुमानजी नहीं गए अयोध्या से !

अब दरबार में काना फूसी शुरू हुई कि हनुमानजी से कौन कहे जाने के लिए, तो सबसे पहले माता सीता की बारी आई कि आप ही बोलो कि हनुमानजी चले जाएं।

माता सीता बोलीं मै तो लंका में विकल पड़ी थी, मेरा तो एक एक दिन एक एक कल्प के समान बीत रहा था, 

वो तो हनुमानजी थे,जो प्रभु मुद्रिका ले के गए, और धीरज बंधवाया कि...!

कछुक दिवस जननी धरु धीरा।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।।

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥

मै तो अपने बेटे से बिल्कुल भी नहीं बोलूंगी अयोध्या छोड़कर जाने के लिए, आप किसी और से बुलावा लो।

अब बारी आयी लखनजी की तो लक्ष्मण जी ने कहा, मै तो लंका के रणभूमि में वैसे ही मरणासन्न अवस्था में पड़ा था, पूरा रामदल विलाप कर रहा था।

प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस।।

ये तो जो खड़ा है, वो हनुमानजी का लक्ष्मण है। मै कैसे बोलूं, किस मुंह से बोलूं कि हनुमानजी अयोध्या से चले जाएं !

अब बारी आयी भरतजी की, अरे ! भरतजी तो इतना रोए, कि रामजी को अयोध्या से निकलवाने का कलंक तो वैसे ही लगा है मुझपे, हनुमानजी का सब मिलके और लगवा दो !

और दूसरी बात ये कि...!

बीतें अवधि रहहिं जौं प्राना।
अधम कवन जग मोहि समाना॥

मैंने तो नंदीग्राम में ही अपनी चिता लगा ली थी, वो तो हनुमानजी थे जिन्होंने आकर ये खबर दी कि...!

रिपु रन जीति सुजस सुर गावत।
सीता सहित अनुज प्रभु आवत॥

मैं तो बिल्कुल न बोलूं हनुमानजी से अयोध्या छोड़कर चले जाओ, आप किसी और से बुलवा लो।

अब बचा कौन..? सिर्फ शत्रुहन भैया। जैसे ही सब ने उनकी तरफ देखा, तो शत्रुहन भैया बोल पड़े.. 

मैंने तो पूरी रामायण में कहीं नहीं बोला, तो आज ही क्यों बुलवा रहे हो, और वो भी हनुमानजी को अयोध्या से निकलने के लिए, 

जिन्होंने ने माता सीता, लखन भैया, भरत भैया सब के प्राणों को संकट से उबारा हो ! किसी अच्छे काम के लिए कहते बोल भी देता। मै तो बिल्कुल भी न बोलूं।

अब बचे तो मेरे राघवेन्द्र सरकार... 

माता सीता ने कहा प्रभु ! आप तो तीनों लोकों ये स्वामी है, और देखती हूं आप हनुमानजी से सकुचाते है। और आप खुद भी कहते हो कि...!

प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥

आखिर आप के लिए क्या अदेय है प्रभु ! 

राघवजी ने कहा देवी कर्जदार जो हूं, हनुमान जी का, इसीलिए तो..
.
सनमुख होइ न सकत मन मोरा

देवी ! हनुमानजी का कर्जा उतारना आसान नहीं है, इतनी सामर्थ राम में नहीं है, जो "राम नाम" में है। 

क्योंकि कर्जा उतारना भी तो बराबरी का ही पड़ेगा न...! यदि सुनना चाहती हो तो सुनो हनुमानजी का कर्जा कैसे उतारा जा सकता है।

पहले हनुमान विवाह करें,
लंकेश हरें इनकी जब नारी।

मुदरी लै रघुनाथ चलै,
निज पौरुष लांघि अगम्य जे वारी।

अायि कहें, सुधि सोच हरें, 
तन से, मन से होई जाएं उपकारी।

तब रघुनाथ चुकायि सकें, 
ऐसी हनुमान की दिव्य उधारी।।

देवी ! इतना आसान नहीं है, हनुमान जी का कर्जा चुकाना। मैंने ऐसे ही नहीं कहा था कि...!
"सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं"

मैंने बहुत सोच विचार कर कहा था। लेकिन यदि आप कहती हो तो कल राज्य सभा में बोलूंगा कि हनुमानजी भी कुछ मांग लें।

दूसरे दिन राज्य सभा में सब एकत्र हुए, सब बड़े उत्सुक थे कि हनुमानजी क्या मांगेंगे, और रामजी क्या देंगे।

राघवजी ने कहा ! हनुमान सब लोगों ने मेरी बहुत सहायता की और मैंने, सब को कोई न कोई पद दे दिया। 

विभीषण और सुग्रीव को क्रमशः लंका और किष्कन्धा का राजपद, अंगद को युवराज पद। तो तुम भी अपनी इच्छा बताओ...?

हनुमानजी बोले ! प्रभु आप ने जितने नाम गिनाए, उन सब को एक एक पद मिला है, और आप कहते हो...!

तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना

तो फिर यदि मै दो पद मांगू तो..?

सब लोग सोचने लगे बात तो हनुमानजी भी ठीक ही कह रहे हैं। 

रामजी ने कहा ! ठीक है, मांग लो, 

सब लोग बहुत खुश हुए कि आज हनुमानजी का कर्जा चुकता हुआ।

हनुमानजी ने कहा ! प्रभु जो पद आप ने सबको दिए हैं, उनके पद में राजमद हो सकता है, तो मुझे उस तरह के पद नहीं चाहिए, जिसमे राजमद की शंका हो, 

तो फिर...! आप को कौन सा पद चाहिए ?

हनुमानजी ने रामजी के दोनों चरण पकड़ लिए, प्रभु ..! हनुमान को तो बस यही दो पद चाहिए।

हनुमत सम नहीं कोउ बड़भागी।
नहीं कोउ रामचरण अनुरागी।।

जय श्री राम

प्रकृति का न्याय न्याय

दो लड़के बाग में खेल रहे थे, तभी उन्होंने एक पेड़ पर जामुन लगे देखे। उनके मुंह में पानी भर आया। वे जामुन खाना चाहते थे लेकिन पेड़ बहुत ऊंचा था। अब कैसे खाएं जामुन ? समस्या बड़ी विकट थी।

एक लड़का बोला-‘‘कभी-कभी प्रकृति भी अन्याय करती है। अब देखो, जामुन जैसा छोटा-सा फल इतनी ऊंचाई पर इतने बड़े पेड़ पर लगता है और बड़े-बड़े खरबूजे बेल से लटके जमीन पर पड़े रहते हैं।’’
दूसरे लड़के ने भी सहमति जताई। वह बोला-‘‘तुम ठीक कहते हो, तुम्हारी बात में दम है लेकिन मेरी समझ में यह बात नहीं आई कि प्रकृति ने छोटे-बड़े के अनुपात का ध्यान क्यों नहीं रखा। अब यह भी कोई तुक हुई कि इतना छोटा-सा फल तोड़ने के लिए इतने ऊंचे पेड़ पर चढ़ना पड़े। मेरा तो मानना है कि प्रकृति भी संपूर्ण नहीं।’’
तभी अचानक ऊपर से जामुन का एक गुच्छा एक लड़के के सिर पर आ गिरा। उसने ऊपर की ओर देखा लेकिन कुछ बोला नहीं।

तभी दूसर लड़का बोला-‘‘मित्र ! अभी हम प्रकृति की आलोचना कर रहे थे और प्रकृति ने ही हमें सबक सिखा दिया। सोचो जरा, यदि जामुन के बजाए तरबूज गिरा होता तो क्या होता ? शायद तुम्हारा सिर फट जाता और शायद फिर बच भी न पाते।’’

‘‘हां, प्रकृति जो भी करती है अच्छा ही करती है।’’ वह लड़का बोला जिसके सिर पर जामुन का गुच्छा गिरा था।


वृंदावन मथुरा धाम के दर्शन