GOOD DEEDS NEVER GO WASTE

अंधे धृतराष्ट्र ने क्यों गंवाए सौ पुत्र.....

पिता के जीवनकाल में उसके सौ पुत्र क्यों मारे जाएं, इससे बड़ी विडंबना क्या होगी ?

महाभारत में धृतराष्ट्र के सौ पुत्र मारे गए थे. क्या यह उनके पूर्वजन्म के किसी कर्म का दंड था.

धृतराष्ट्र अंधे थे लेकिन जब उन्हें यह पता चला कि गांधारी को सौ संतानों को जन्म देने का आशीष है तो अंधेपन का दुख मिट गया था.धृतराष्ट्र के सौ पुत्र और एक पुत्री हुई. कुरुक्षेत्र में उनके सौ पुत्र मारे गए थे. एक पिता के लिए इससे बड़ी विडंबना होगी कि उसे सौ पुत्रों का शोक मनाना पड़े.

भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का जो संदेश दिया था उसे अर्जुन के अतिरिक्त संजय और धृतराष्ट्र ने भी सुना था. उसमें भगवान ने कहा था कि सबकुछ पूर्वनिर्धारित है. सबको उनके पूर्व के कर्मों का दंड भोगना होगा. धृतराष्ट्र के वह बात स्मरण थी.

दुर्योधन और दुःशासन मुख्य रूप से पांडवों और द्रोपदी के दोषी थे. उनके मारे जाने को तो धृतराष्ट्र कर्मदंडों से जोड़ रहे थे पर शेष पुत्रों की तो कोई भूमिका ही न थी. वे क्यों मारे गए. यह प्रश्न धृतराष्ट्र को कचोटता था.

महाभारत युद्ध समाप्त होने पर धृतराष्ट्र ने श्रीकृष्ण से पूछा- मैं अंधा पैदा हुआ, मेरे सौ पुत्र मारे गए. भगवन मैंने ऐसा कौन सा पाप किया है जिसका यह दंड मिल रहा है. आपने अर्जुन से कहा था कि जो हो रहा है वह कर्मों का दंड है. मेरे अंधे होने और सौ पुत्रों के मारे जाने के पीछे क्या कारण है. कृपया यह मुुझे बताएं. अपने पुत्रों को खोने की पीड़ा से उबरने में यह काम आएगा.

श्रीकृष्ण ने कहा- महाराज धृतराष्ट्र आपने उचित ही सुना था. कर्मों का दंड भोगना पड़ता है. उससे किसी को छूट नहीं है. राजा और समर्थवान लोगों को कर्मों का दंड विशेष रूप से भोगना पड़ता है.

ईश्वर उन्हें समर्थवान बनाते हैं तो उनसे ज्यादा जिम्मेदार होनी की आशा रखते हैं. कुछ पाने के लिए कुछ तो देना ही पड़ेगा न महाराज. आप इस जन्म में भी राजा हैं, पूर्वजन्म में भी राजा थे, पर आपने कई पापकर्म किए.

धृतराष्ट्र अधीर हो गए. वह बोले- केशव मैंने इस जन्म में जो किया वह मेरे सामने है. एक राजा और एक बड़े परिवार का मुखिया होने के नाते मुझे वही उचित लगा. पूर्वजन्म का रहस्य जानने को उत्सकु हूं. कृपया वह रहस्य खोलें कि ऐसा कौन सा पाप था कि मैं अंधा भी हुआ, सौ पुत्र भी गंवाए.

भगवान श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र को पूर्वजन्म की याद दिलानी शुरू की. उन्हें पूर्वजन्म में लेकर गए.

भगवान बोले- महाराज धृतराष्ट्र पिछले जन्म में भी आप एक राजा थे. आपके राज्य में एक तपस्वी ब्राह्मण रहते थे. ब्राह्मण के पास हंसों का एक जोड़ा था जिसके चार बच्चे थे. ब्राह्मण को उन हंसों से अपने संतान के जैसा लगाव था.

ब्राह्मण को तीर्थयात्रा पर जाना था लेकिन हंसों की चिंता में वह जा नहीं पा रहे थे. उसने अपनी चिंता एक साधु को बताई.

साधु ने कहा- तीर्थ में हंसों को बाधक बताकर हंसों का अगला जन्म खराब क्यों करते हो. राजा प्रजापालक होता है. तुम और तुम्हारे हंस दोनों उसकी प्रजा हो. हंसों को राजा के संरक्षण में रखकर तीर्थ को जाओ.

आप एक प्रजापालक राजा थे. इसलिए ब्राह्मण को यह बात जम गई. वह आपके पास आया और अपनी सारी परेशानी कह सुनाई. आपने ब्राह्मण के तीर्थ से लौट आने तक हंसों की रक्षा का दायित्व स्वीकार लिया.

ब्राह्मण हंस और उसके बच्चे आपके पास रखकर तीर्थ को गए. हंस आपके महल के तालाब में ही पलने लगे.

आपको एक दिन मांस खाने की तीव्र इच्छा हुई. आप उस समय अपने महल के बाग में घूम रहे थे. आपकी नजर हंसों पर पड़ गई. आपने सोचा सभी जीवों का मांस खाया है पर हंस का मांस आज तक नहीं खाया. इसका स्वाद आखिर कैसा होता होगा.

आप इसी विषय पर सोचते रहे और हंस का मांस खाने की इच्छा तीव्र होती चली गई. यह इच्छा अब पराकाष्ठा पर पहुंच गई और आप खुद को रोक न पाए.

आपने हंस के दो बच्चे भूनकर खा लिए. उसका स्वाद आपकी जिह्वा को लग गया. हंस के एक-एक कर सौ बच्चे हुए. आप सबको खाते चले गए.अंततः हंस का जोड़ा संतानहीन होकर दुख में मर गया.

कई साल बाद वह ब्राह्मण तीर्थयात्रा से लौटा और आपके पास आया. उसने आपसे अपने हंसों के बारे में पूछा. हंस तो आपके लोभ की बलि चढ़ चुके थे. प्रजापालक राजा यह कैसे कहता कि उसने अपने प्रजा की संपत्ति को चुपके से लूट ली.

इसलिए आपने ब्राह्मण से कह दिया कि हंस बीमार होकर मर गए. ब्राह्मण दंपति आप पर पूरा भरोसा करता था. उसने आपकी बात मान ली और विलाप करते घर चले गए.

महाराज धृतराष्ट्र आपने हंस के बच्चों को खाकर और फिर झूठ बोलकर एक साथ कई अपराध किए, वह सुनिए.

आपने तीर्थयात्रा पर गए उस व्यक्ति के साथ विश्वासघात किया जिसने आपपर अंधविश्वास किया था.आपने प्रजा की धरोहर में डाका डालकर राजधर्म भी नहीं निभाया.

जिह्वा के लालच में पड़कर हंस के सौ बच्चे भूनकर खा गए जो आपके पास आश्रय के लिए आए थे. इस तरह आपने उस असहाय का वध किया जिसे आपने आश्रय दिया था. यह बहुत बड़ा पाप है.

हे राजन! इन घोर पापकर्मों का आपको दंड मिला है. जैसे आपने जिह्वा के लालच में हंस के सौ बच्चे मारे, वैसे ही आपके सौ पुत्र हुए लालच में पड़कर मारे गए. उन सबकी जिह्वा भी आवश्यकता से अधिक उदंड थी.

जिसने आपपर आंख मूंदकर भरोसा किया उस तीर्थयात्री से आपने झूठ बोला और राजधर्म का पालन नहीं किया.

कोई आंख मूंदकर विश्वास करे तो उसका विश्वास कभी नहीं तोड़ना चाहिए. इसी विश्वासघात के कारण आप अंधे और राजकाज में विफल व्यक्ति हो गए.
श्रीकृष्ण ने कहा- सबसे बड़ा छल होता है विश्वासघात. आप उसी पाप का फल भोग रहे हैं

UNCONDITIONAL LOVE FOR GOD

लड्डू गोपाल की सेवा...............

एक नगर में दो वृद्धस्त्रियां बिल्कुल पास पास रहा करती थी। उन दोनो में बहुत घनिष्ठता थी। उन दोनों का ही संसार में कोई नहीं था इसलिए एक दूसरे का सदा साथ देतीं और अपने सुख-दुःख आपस में बाँट लेती थीं। एक स्त्री हिन्दू थी तथा दूसरी जैन धर्म को मानने वाली थी। हिन्दू वृद्धा ने अपने घर में लड्डू गोपाल को विराजमान किया हुआ था। वह प्रतिदिन बड़े प्रेम से लड्डू गोपाल की सेवा करा करती थी। प्रतिदिन उनको स्नान कराना, धुले वस्त्र पहनाना, दूध व फल आदि भोग अर्पित करना उसका नियम था। वह स्त्री लड्डू गोपाल के भोजन का भी विशेष ध्यान रखती थी। सर्दी, गर्मी, बरसात हर मौसम का ध्यान उसको रहता था। वह जब भी कभी बाहर जाती लड्डू गोपाल के लिए कोई ना कोई खाने की वस्तु, नए वस्त्र खिलोने आदि अवश्य लाती थी। लड्डू गोपाल के प्रति उसके मन में आपार प्रेम और श्रद्धा का भाव था। उधर जैन वृद्धा भी अपनी जैन परम्परा के अनुसार भगवान् के प्रति सेवा भाव में लगी रहती थी। उन दोनों स्त्रिओं के मध्य परस्पर बहुत प्रेम भाव था, दोनों ही एक दूसरे के भक्ति भाव और धर्म की प्रति पूर्ण सम्मान की भावना रखती थी। । जब किसी को कोई समस्या होती तो दूसरी उसका साथ देती, दोनों ही वृद्धाएं स्वाभाव से भी बहुत सरल और सज्जन थी। भगवान की सेवा के अतिरिक्त उनका जो भी समय शेष होता था वह दोनों एक दूसरे के साथ ही व्यतीत करती थीं।

एक बार हिन्दू वृद्धा को एक माह के लिए तीर्थ यात्रा का अवसर प्राप्त हुआ उसने दूसरी स्त्री से भी साथ चलने का आग्रह किया किन्तु वृद्धावस्था के कारण अधिक ना चल पाने के कारण उस स्त्री ने अपनी विवशता प्रकट करी, हिन्दु वृद्धा ने कहा कोई बात नहीं में जहां भी जाउंगी भगवान् से तुम्हारे लिए प्रार्थना करुँगी। फिर वह बोली में तो एक माह में लिए चली जाउंगी तब तक मेरे पीछे मेरे लड्डू गोपाल का ध्यान रखना। उस जैन वृद्धा ने सहर्ष ही उसका यह अनुरोध स्वीकार कर लिया। हिन्दू वृद्धा ने उस जैन वृद्धा को लड्डू गोपाल की सेवा के सभी नियम व आवश्यकताएँ बता दी उस जैन वृद्धा ने सहर्ष सब कुछ स्वीकार कर लिया।

कुछ दिन बाद वह हिन्दू वृद्धा तीर्थ यात्रा के लिए निकल गई। उसके जाने के बाद लड्डू गोपाल के सवा का कार्य जैन वृद्धा ने अपने हाथ में लिया।  वह बहुत उत्त्साहित थी कि उसको लड्डू गोपाल की सेवा का अवसर प्राप्त हुआ। उस दिन उसने बड़े प्रेम से लड्डू गोपाल की सेवा करी, भोजन कराने से लेकर रात्री में उनके शयन तक के सभी कार्य पूर्ण श्रद्धा के साथ वैसे ही पूर्ण किए जैसे उसको बताए गए थे। लड्डू गोपाल के शयन का प्रबन्ध करके वह भी अपने घर शयन के लिए चली गई।

अगले दिन प्रातः जब वह वृद्धा लड्डू गोपाल के सेवा के लिए हिन्दू स्त्री के घर पहुंची तो उसने सबसे पहले लड्डू गोपाल को स्नान कराने की तैयारी करी, नियम के अनुरूप जब वह लड्डू गोपाल को स्नान कराने लगी तो उसने देखा की लड्डू गोपाल के पाँव पीछे की और मुड़े हुए हैं।  उसने पहले कभी लड्डू गोपाल के पाँव नहीं देखे थे जब भी उनको देखा वस्त्रों में ही  देखा था। वह नहीं जानती थी की लड्डू गोपाल के पाँव हैं ही ऐसे, घुटनों के बल बैठे हुए। लड्डू गोपाल के पाँव पीछे की और देख कर वह सोंचने लगी अरे मेरे लड्डू गोपाल को यह क्या हो गया इसके तो पैर मुड़ गए है। उसने उस हिन्दू वृद्धा से सुन रखा था की लड्डू गोपाल जीवंत होते हैं। उसने मन में विचार किया की में इनके पैरो की मालिश करुँगी हो सकता है इनके पाँव ठीक हो जाएं।  बस फिर क्या था भक्ति भाव में डूबी उस भोली भाली वृद्धा ने लड्डू गोपाल के पैरों की मालिश आरम्भ कर दी।  उसके बाद वह नियम से प्रति दिन पांच बार उनके पैरों की मालिश करने लगी। उस भोली वृद्धा की भक्ति और प्रेम देख कर ठाकुर जी का हृदय द्रवित हो उठा, भक्त वत्सल भगवान् अपनी करुणा वश अपना प्रेम उस वृद्धा पर उड़ेल दिया। एक दिन प्रातः उस जैन वृद्धा ने देखा की लड्डू गोपाल के पाँव ठीक हो गए हैं और वह सीधे खड़े हो गए हैं, यह देख कर वह बहुत प्रसन्न हुई और दूसरी स्त्री के आने की प्रतीक्षा करने लगी।

कुछ दिन पश्चात् दूसरी स्त्री वापस लोटी तो उसने घर आकर सबसे पहले अपने लड्डू गोपाल के दर्शन किये, किन्तु जैसे ही वह लड्डू गोपाल के सम्मुख पहुंची तो देखा कि वह तो अपने पैरों पर सीधे खड़े हैं, यह देखकर वह अचंभित रह गई। वह तुरंत उस दूसरी स्त्री के पास गई और उसको सारी बात बताई और पूंछा कि मेरे लड्डू गोपाल कहा गए। यह सुनकर उस जैन स्त्री ने सारी बात बता दी उसकी बात सुनकर वह वृद्ध स्त्री सन्न रह गई और उसको लेकर अपने घर गई वहां जाकर उसने देखा तो लड्डू गोपाल मुस्करा रहे थे, वह लड्डू गोपाल के चरणों में गिर पड़ी और बोली है गोपाल आपकी लीला निराली है, मेने इतने वर्षो तक आपकी सेवा करी किन्तु आपको नहीं पहचान सकी। तब वह उस जैन वृद्धा से बोली की तू धन्य है, तुझको नहीं मालूम की हमारे लड्डू गोपाल के पाँव तो ऐसे ही हैं, पीछे की और किन्तु तेरी भक्ति और प्रेम ने तो लड्डू गोपाल पाँव भी सीधे कर दिया।

उस दिन के बाद उन दोनों स्त्रिओं के मध्य प्रेम भाव और अधिक बड़ गया दोनों मिल कर लड्डू गोपाल की सेवा करने लगी।  वह दोनों स्त्री जब तक जीवित रही तब तक लड्डू गोपाल की सेवा करती रहीं।

MEDITATION IS BLISSFUL

एक फकीर एक वृक्ष के नीचे ध्यान करता है। रोज एक लकड़हारे को लकड़ी काटते ले जाते देखता है। एक दिन उससे कहा कि सुन भाई, दिन भर लकड़ी काटता है, दो जून रोटी भी नहीं जुट पाती। तू जरा आगे क्यों नहीं जाता  वहां आगे चंदन का जंगल है। एक दिन काट लेगा, सात दिन के खाने के लिए काफी हो जाएगा।
गरीब लकड़हारे को भरोसा तो नहीं आया, क्योंकि वह तो सोचता था कि जंगल को जितना वह जानता है और कौन जानता है! जंगल में ही तो जिंदगी बीती। लकड़ियां काटते ही तो जिंदगी बीती। यह फकीर यहां बैठा रहता है वृक्ष के नीचे, इसको क्या खाक पता होगा? मानने का मन तो न हुआ, लेकिन फिर सोचा कि हर्ज क्या है, कौन जाने ठीक ही कहता हो! फिर झूठ कहेगा भी क्यों? शांत आदमी मालूम पड़ता है, मस्त आदमी मालूम पड़ता है। कभी बोला भी नहीं इसके पहले। एक बार प्रयोग करके देख लेना जरूरी है।
तो गया। लौटा फकीर के चरणों में सिर रखा और कहा कि मुझे क्षमा करना, मेरे मन में बड़ा संदेह आया था, क्योंकि मैं तो सोचता था कि मुझसे ज्यादा लकड़ियां कौन जानता है। मगर मुझे चंदन की पहचान ही न थी। मेरा बाप भी लकड़हारा था, उसका बाप भी लकड़हारा था। हम यही काटने की, जलाऊ—लकड़ियां काटते—काटते जिंदगी बिताते रहे, हमें चंदन का पता भी क्या, चंदन की पहचान क्या! हमें तो चंदन मिल भी जाता तो भी हम काटकर बेच आते उसे बाजार में ऐसे ही। तुमने पहचान बताई, तुमने गंध जतलाई, तुमने परख दी। जरूर जंगल है। मैं भी कैसा अभागा! काश, पहले पता चल जाता! फकीर ने कहा कोई फिक्र न करो, जब पता चला तभी जल्दी है। जब घर आ गए तभी सबेरा है। दिन बड़े मजे में कटने लगे। एक दिन काट लेता, सात— आठ दिन, दस दिन जंगल आने की जरूरत ही न रहती। एक दिन फकीर ने कहा; मेरे भाई, मैं सोचता था कि तुम्हें कुछ अक्ल आएगी। जिंदगी भर तुम लकड़ियां काटते रहे, आगे न गए; तुम्हें कभी यह सवाल नहीं उठा कि इस चंदन के आगे भी कुछ हो सकता है? उसने कहा; यह तो मुझे सवाल ही न आया। क्या चंदन के आगे भी कुछ है? उस फकीर ने कहा चंदन के जरा आगे जाओ तो वहां चांदी की खदान है। लकडिया—वकडिया काटना छोड़ो। एक दिन ले आओगे, दो चार छ: महीने के लिए हो गया।
अब तो भरोसा आया था। भागा। संदेह भी न उठाया। चांदी पर हाथ लग गए, तो कहना ही क्या! चांदी ही चांदी थी! चार छ: महीने नदारद हो जाता। एक दिन आ जाता, फिर नदारद हो जाता। लेकिन आदमी का मन ऐसा मूढ़ है कि फिर भी उसे खयाल न आया कि और आगे कुछ हो सकता है। फकीर ने एक दिन कहा कि तुम कभी जागोगे कि नहीं, कि मुझी को तुम्हें जगाना पड़ेगा। आगे सोने की खदान है मूर्ख! तुझे खुद अपनी तरफ से सवाल, जिज्ञासा, मुमुक्षा कुछ नहीं उठती कि जरा और आगे देख लूं? अब छह महीने मस्त पड़ा रहता है, घर में कुछ काम भी नहीं है, फुरसत है। जरा जंगल में आगे देखकर देखूं यह खयाल में नहीं आता?
उसने कहा कि मैं भी मंदभागी, मुझे यह खयाल ही न आया, मैं तो समझा चांदी, बस आखिरी बात हो गई, अब और क्या होगा? गरीब ने सोना तो कभी देखा न था, सुना था। फकीर ने कहा : थोड़ा और आगे सोने की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है। फिर और आगे हीरों की खदान है। और ऐसे कहानी चलती है। और एक दिन फकीर ने कहा कि नासमझ, अब तू हीरों पर ही रुक गया? अब तो उस लकड़हारे को भी बडी अकड़ आ गई, बड़ा धनी भी हो गया था, महल खड़े कर लिए थे। उसने कहा अब छोड़ो, अब तुम मुझे परेशांन न करो। अब हीरों के आगे क्या हो सकता है?
उस फकीर ने कहा. हीरों के आगे मैं हूं। तुझे यह कभी खयाल नहीं आया कि यह आदमी मस्त यहां बैठा है, जिसे पता है हीरों की खदान का, वह हीरे नहीं भर रहा है, इसको जरूर कुछ और आगे मिल गया होगा! हीरों से भी आगे इसके पास कुछ होगा, तुझे कभी यह सवाल नहीं उठा? रोने लगा वह आदमी। सिर पटक दिया चरणों पर। कहा कि मैं कैसा मूढ़ हूं मुझे यह सवाल ही नहीं आता। तुम जब बताते हो, तब मुझे याद आता है। यह तो मेरे जन्मों जन्मों में नहीं आ सकता था खयाल कि तुम्हारे पास हीरों से भी बड़ा कोई धन है।
फकीर ने कहा : उसी धन का नाम ध्यान है।
अब खूब तेरे पास धन है, अब धन की कोई जरूरत नहीं। अब जरा अपने भीतर की खदान खोद, जो सबसे आगे है।

INDIAN CULTURE

बेटा चल छत पर चलें कल तो तेरी शादी है,आज हम माँ बेटी पूरी रात बातें करेंगे।चल तेरे सिर की मालिश कर दूँ,तुझे अपनी गोद में सुलाऊँ कहते कहते आशा जी की आँखें बरस पड़ती हैं। विशाखा उनके आंसू पोंछते हुए कहती है ऐसे मत रो माँ, मैं कौन सा विदेश जा रही हूँ। 2 घण्टे लगते हैं आगरा से मथुरा आने में जब चाहूंगी तब आ जाऊँगी।

विदा हो जाती है विशाखा माँ की ढेर सारी सीख लिए,मन में छोटे भाई बहनों का प्यार लिये,पापा का आशीर्वाद लिये।चाचा-चाची,दादी-बाबा,मामा-मामी, बुआ-फूफा,मौसी-मौसा सबकी ढेर सारी यादों के साथ,जल्दी आना बिटिया,आती रहना बिटिया कहते,हाथ हिलाते सबके चेहरे धुंधले हो गए थे विशाखा के आंसुओं से। संग बैठे आकाश उसे चुप कराते हुए कहते हैं सोच लो पढ़ाई करने बाहर जा रही हो।जब मन करे चली आना।

शादी के 1 साल बाद ही विशाखा के दादा जी की मृत्यु हो गयी, उस समय वो आकाश के मामा की बेटी की शादी में गयी थी,आकाश विशाखा से कहता है ऐसे शादी छोड़ कर कैसे जाएंगे विशु, दादाजी को एक न एक दिन तो जाना ही था।फिर चली जाना,चुप थी विशाखा क्योंकि माँ ने सिखा कर भेजा था अब वही तेरा घर है,जो वो लोग कहें वही करना।6 महीने पहले आनंद भईया(मामा के बेटे) की शादी में भी नहीं जा पायी थी क्योंकि सासु माँ बीमार थीं।

अब विशाखा 1 बेटी की माँ बन चुकी थी,जब उसका पांचवा महीना चल रहा था तभी चाची की बिटिया की शादी पड़ी थी,सासू माँ ने कहा दिया ऐसी हालत में कहाँ जाओगी। वो सोचती है,कैसी हालत सुबह से लेकर शाम तक सब काम करती हूँ, ठीक तो हूँ इस बार उसका बहुत मन था,इसलिए उसने आकाश से कहा मम्मी जी से बात करे और उसे शादी में लेकर चले,चाची का फोन भी आया था आकाश के पास,तो उन्होंने कहा दिया आप लोग जिद करेंगे तो मैं ले आऊँगा लेकिन कुछ गड़बड़ हुई तो जिम्मेदारी आपकी होगी।फिर तो माँ ने ही मना कर दिया,रहने दे बेटा कुछ भी हुआ तो तेरे ससुराल वाले बहुत नाराज हो जाएंगे।

वैसे तो ससुराल में विशाखा को कोई कष्ट नहीं था,किसी चीज की  कमी भी  नहीं थी,फिर भी उसे लगता था जैसे उसे जिम्मेदारियों का मुकुट पहना दिया गया हो।उसके आने से पहले भी तो लोग बीमार पड़ते होंगे,तो कैसे सम्भलता था सब,उसके आने से पहले भी तो उनके घर में शादी ब्याह पड़ते होंगे,तो आज अगर वो किसी समारोह में न जाकर अपने मायके के समारोह में चली जाए तो क्या गलत हो जाएगा।

दिन बीत रहे थे कभी 4 दिन कभी 8 दिन के लिए वो अपने मायके जाती थी और बुझे मन से लौट आती थी।विशाखा के नंद की शादी ठीक हो गयी है,उन दोनों का रिश्ता बहनो या दोस्तों जैसा है।अपनी नंद सुरभि की वजह से ही उसे ससुराल में कभी अकेलापन नहीं लगा।सुरभि की शादी होने से विशाखा जितनी खुश थी उतनी ही उदास भी थी,उसके बिना ससुराल की कल्पना भी उसके आंखों में आंसू भर देती थी। विशाखा ने शादी की सारी जिम्मेदारी बहुत अच्छे से संभाल ली थी,उसको दूसरा बच्चा होने वाला है,चौथे महीने की प्रेगनेंसी है फिर भी वो घर-बाहर का हर काम कर ले रही है।सभी रिश्तेदार विशाखा की सास से कह रहे हैं बड़ी किस्मत वाली हो जो विशाखा जैसी बहु पायी हो।
RajeshRiteshMidla
शादी का दिन भी आ गया,आज विशाखा के आँसू रुक ही नहीं रहे थे,दोनों नंद भाभी एक दूसरे को पकड़े रो रही थीं,तभी विशाखा की सास उसे समझाते हुए कहती हैं,ऐसे मत रो बेटा, कोई विदेश थोड़े ही जा रही हो जब चाहे तब आ जाना।तब सुरभि कहती है,नहीं माँ जब दिल चाहे तब नहीं आ पाऊँगी।वो पूछती हैं ऐसे क्यों कहा रही हो बेटा, माँ के पास क्यों नहीं आओगी तुम?

सुरभि कहती है,"कैसे आऊँगी माँ हो सकता जब मेरा आने का मन करे तब मेरे ससुराल में कोई बीमार पड़ जाए,कभी किसी की शादी पड़ जाए या कभी मेरा पति ही कह दे तुम अपने रिस्क पे जाओ कुछ हुआ तो फिर मुझसे मत कहना।सब एकदम अवाक रह जाते हैं,वो लोग विशाखा की तरफ देखने लगते हैं,तभी सुरभि कहने लगती है,नहीं माँ भाभी ने कभी मुझसे कुछ नहीं कहा लेकिन मैंने देखा था उनकी सूजी हुई आंखों को जब उनके दादा जी की मौत पर आप लोग शादी का जश्न मना रहे थे।मैंने महसूस की है वो बेचैनी जब आपको बुखार होने के चलते वो अपने भईया की शादी में नहीं जा पा रही थीं।मैंने महसूस किया है उस घुटन को जब भैया ने उन्हें उनकी चाची की  बेटी की शादी में जाने से मना कर दिया था,उन भईया ने जिन्होंने उनकी विदाई के वक़्त कहा था सोच लो तुम बाहर पढ़ने जा रही हो जब मन करे तब आ जाना।आपको नहीं पता भईया आपने भाभी का विश्वास तोड़ा है।

कल को मेरे ससुराल वाले भी मुझे छोटे भईया की शादी में  न आने दें तो,,सोचा है कभी आपने।पापा हमारी गुड़िया तो आपकी जान है,कभी सोचा है आप सबने कल को पापा को कुछ हो जाये और गुड़िया के ससुराल वाले उसे न आने दें।कभी भाभी की जगह खुद को रख कर देखिएगा,एक लड़की अपने जीवन के 24-25 साल जिस घर में गुजारती है,जिन रिश्तों के प्यार की खुशबू से उसका जीवन भरा होता है उसको उसी घर जाने, उन रिश्तों को महसूस करने से रोक दिया जाता है।

मुझे माफ़ कर दीजिए भाभी मैं आपके लिए कुछ नहीं कर पाई,जिन रिश्तों में बांधकर हम आपको अपने घर लाये थे वही रिश्ते वही बन्धन आपकी बेड़ियाँ बन गए और ये कहते-कहते सुरभि विशाखा के गले लग जाती है।आज सबकी आंखें नम थी ,सबके सिर अपनी गलतियों के बोझ से झुके हुए थे।

STRONG FAITH IN GOD

एक बार एक शिव-भक्त अपने गावँ से केदारनाथ धाम की यात्रा पर निकला। पहले यातायात की सुविधाएँ तो थी नहीं, वह पैदल ही निकल पड़ा। रास्ते में जो भी मिलता केदारनाथ का मार्ग पूछ लेता। मन में भगवान शिव का ध्यान करता रहता। चलते चलते उसको महीनो बीत गए। आखिरकार एक दिन वह केदार धाम पहुच ही गया।
केदारनाथ में मंदिर के द्वार 6 महीने खुलते है और 6 महीने बंद रहते है। वह उस समय पर पहुचा जब मन्दिर के द्वार बंद हो रहे थे। पंडित जी को उसने बताया वह बहुत दूर से महीनो की यात्रा करके आया है। पंडित जी से प्रार्थना की - कृपा कर के दरवाजे खोलकर प्रभु के दर्शन करवा दीजिये ।
लेकिन वहा का तो नियम है एक बार बंद तो बंद। नियम तो नियम होता है। वह बहुत रोया। बार-बार भगवन शिव को याद किया कि प्रभु बस एक बार दर्शन करा दो। वह प्रार्धना कर रहा था सभी से, लेकिन किसी ने भी नही सुनी।
पंडित जी बोले अब यहाँ 6 महीने बाद आना, 6 महीने बाद यहा के दरवाजे खुलेंगे। यहाँ 6 महीने बर्फ और ढंड पड़ती है। और सभी जन वहा से चले गये।
वह वही पर रोता रहा। रोते-रोते रात होने लगी चारो तरफ अँधेरा हो गया। लेकिन उसे विस्वास था अपने शिव पर कि वो जरुर कृपा करेगे। उसे बहुत भुख और प्यास भी लग रही थी।
उसने किसी की आने की आहट सुनी। देखा एक सन्यासी बाबा उसकी ओर आ रहा है। वह सन्यासी बाबा उस के पास आया और पास में बैठ गया। पूछा - बेटा कहाँ से आये हो ? उस ने सारा हाल सुना दिया और बोला मेरा आना यहाँ पर व्यर्थ हो गया बाबा जी। बाबा जी ने उसे समझाया और खाना भी दिया। और फिर बहुत देर तक बाबा उससे बाते करते रहे। बाबा जी को उस पर दया आ गयी। वह बोले, बेटा मुझे लगता है, सुबह मन्दिर जरुर खुलेगा। तुम दर्शन जरुर करोगे।

बातो-बातो में इस भक्त को ना जाने कब नींद आ गयी। सूर्य के मद्धिम प्रकाश के साथ भक्त की आँख खुली। उसने इधर उधर बाबा को देखा, किन्तु वह कहीं नहीं थे । इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता उसने देखा पंडित जी आ रहे है अपनी पूरी मंडली के साथ। उस ने पंडित को प्रणाम किया और बोला - कल आप ने तो कहा था मन्दिर 6 महीने बाद खुलेगा ? और इस बीच कोई नहीं आएगा यहाँ, लेकिन आप तो सुबह ही आ गये।

पंडित जी ने उसे गौर से देखा, पहचानने की कोशिश की और पुछा - तुम वही हो जो मंदिर का द्वार बंद होने पर आये थे ? जो मुझे मिले थे। 6 महीने होते ही वापस आ गए !

उस आदमी ने आश्चर्य से कहा - नही, मैं कहीं नहीं गया। कल ही तो आप मिले थे, रात में मैं यहीं सो गया था। मैं कहीं नहीं गया।

पंडित जी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं था। उन्होंने कहा - लेकिन मैं तो 6 महीने पहले मंदिर बन्द करके गया था और आज 6 महीने बाद आया हूँ। तुम छः महीने तक यहाँ पर जिन्दा कैसे रह सकते हो ?

पंडित जी और सारी मंडली हैरान थी। इतनी सर्दी में एक अकेला व्यक्ति कैसे छः महीने तक जिन्दा रह सकता है। तब उस भक्त ने उनको सन्यासी बाबा के मिलने और उसके साथ की गयी सारी बाते बता दी। कि एक सन्यासी आया था - लम्बा था, बढ़ी-बढ़ी जटाये, एक हाथ में त्रिशुल और एक हाथ में डमरू लिए, मृग-शाला पहने हुआ था।

पंडित जी और सब लोग उसके चरणों में गिर गये। बोले, हमने तो जिंदगी लगा दी किन्तु प्रभु के दर्शन ना पा सके, सच्चे भक्त तो तुम हो। तुमने तो साक्षात भगवान शिव के दर्शन किये है। उन्होंने ही अपनी योग-माया से तुम्हारे 6 महीने को एक रात में परिवर्तित कर दिया। काल-खंड को छोटा कर दिया। यह सब तुम्हारे पवित्र मन, तुम्हारी श्रद्वा और विस्वास के कारण ही हुआ है। हम आपकी भक्ति को प्रणाम करते है।

बाबा भोले नाथ की जय हो